धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
|
0 |
मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
काम बात है, कफ लोभ है और क्रोध ही पित्त है। वैद्य यह चेष्टा तो नहीं करेगा कि इन्हीं तीनों से रोग उत्पन्न होता है, अत: इनको ही मिटा दिया जाय क्योंकि वह जानता है कि इससे रोग क्या स्वयं रोगी ही नष्ट हो जायगा। इसका अर्थ यह हुआ कि काम, क्रोध और लोभ के बिना समाज चल ही नहीं सकता। इन तीनों के संतुलन में जीवन है, असंतुलन में रोग है और अतिशय असंतुलन में मृत्यु है। यह बात मन और शरीर दोनों के संदर्भ में समान रूप से सत्य दिखायी देती है।
हम यदि विचार करके यह देखें कि व्यक्ति के जीवन में जो कर्म हो रहा है, उनका संचालन कौन कर रहा है? तो हम कह सकते हैं कि इसके मूल में कामना है, जो काम का ही रूप है। संसार के सृजन के मूल में भी काम ही है। इसी प्रकार से पित्त ही भोजन को पचाता है पर जब उसका अतिरेक हो जाता है तब जलन होने लगती है। इसीलिए क्रोध की तुलना पित्त से की गयी है। जीवन में, समाज में हम देखते हैं कि निर्माण और संहार दोनों की ही आवश्यकता है। नये के निर्माण के लिये ध्वंस भी अपेक्षित है। पुराने जीर्ण-शीर्ण मकान को गिराकर नये मकान का निर्माण किया जाता है।
समाचार पत्रों में आता है कि मुम्बई में पुराने मकानों में लोग रह रहे हैं, मुम्बई में आवाज की समस्या बड़ी जटिल है। उन पुराने मकानों के विषय में यह भय लगा रहता है कि वे किसी भी समय गिर सकते हैं। लोगों से उन्हें छोड़ने का, खाली कर देने का आग्रह भी किया जाता है पर समस्या के रहते वे सोचते हैं कि कहाँ जायँ और इसलिये चेतावनी को वे दृष्टिगत नहीं रख पाते। फिर पता चलता है कि उनमें से कोई मकान ढह गया है।
तो एक स्थिति है कि मकान अपने आप ढह गया और दूसरी स्थिति है कि उसे ढहा दिया गया। क्रोध भी इसी तरह कभी-कभी एक आवश्यकता के रूप में हमारे सामने आता है। बुराइयों को मिटाने के लिये क्रोध के द्वारा दण्ड दिया जाता है। अत: क्रोध भी चाहिये, कोई भूल कर रहा है, अनर्थ कर रहा है तो जब उसे समाज या कानून दण्डित करता है तो उसके पीछे क्रोध का यही रूप होता है।
|